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सोमवार

यातनाएं झेलनेवाला


रात
पिरहाना मछलियों-सी कुतरती रही तुम्हारी यादें
और दिन भर बदनाम कुर्सियों को सुनाता रहा मैं मुक्ति-गीत
एक गिटार ने मुझे जीने का गुर सिखाया
एक आत्मा जो दूर है मुझसे
उसे बार-बार आमंत्रित करती रही
मेरी लहूलुहान कविताएं
उदास दिनों में एक बेहतरीन सपने सौपना चाहता हूँ उस स्त्री को
जिसे पृथ्वी पर मेरे होने का अंतिम सबूत मान लिया जाएगा !

यह मेरी एक कूटनीतिक विजय होगी
कि हमदोनों ऊँची चहारदीवारी लांघ सकेंगे अब
कि शिकारी कुत्तों को खदेड़ देंगे हमारे सपने
कि यातनाएं झेलनेवाला ही होगा
प्रेम करने में सबसे अव्वल !


अरविन्द श्रीवास्तव, मधेपुरा,  Mob.- 9431080862.

शनिवार

एक उदास शाम का फुटनोट !


एक मृत सर्प का बयान

 
  मारा गया मुझे
घेर कर खदेड़ कर
मारा गया मुझे बीहड़ों में
पुलिस मुठभेड़-सा
सड़कों पर किसी
वीभत्स दुर्घटना-सा
अँधेरे कमरे और टार्च की रोशनी में
घरों में स्टाइल बदल-बदल कर
मारा गया मुझे

मरते वक्त सुना मैंने
शस्त्र सज्जित मेरे हत्यारे
कह रहे थे-
यह खतरनाक जाति का है
बिलकुल विषैली प्रजाति का है !
 
= अरविन्द श्रीवास्तव

सोमवार

वरिष्ठ रंगकर्मी जीतेन्द्र रघुवंशी के निधन पर शोक..

भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा) के महासचिव कामरेड जीतेन्द्र रघुवंशी का आकस्मिक निधन प्रगतिशील-जनवादी लेखकों-संस्कृतिकर्मियों के लिए एक स्तब्धकारी सूचना है. आगरा-निवासी रघुवंशी जी को स्वाइन फ्लू की शिकायत पर दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में भरती कराया गया था, जहां 48 घंटे के अन्दर उनका निधन हो गया.

      कामरेड जीतेन्द्र रघुवंशी सीपीआई के सदस्य थे और लम्बे अरसे से इप्टा के कामकाज से जुड़े हुए थे. इप्टा के माध्यम से गाँवों तक नाटकों को ले जाने और ग्रामीण कलाकारों को आगे बढाने का काम उन्होंने बहुत गंभीरता से किया. अनेक कलाकारों ने उनकी देखरेख में अपने कलाकर्म को निखारा. आगरा शहर में, जहां वे रहते थे, हर गर्मियों में बच्चों के लिए ‘चिल्ड्रेन्स इप्टा’ के नाम से पखवाड़े भर की एक कार्यशाला आयोजित करते थे. वे आगरा के बी आर अम्बेडकर विश्वविद्यालय के अंतर्गत के ऍम इंस्टिट्यूट में विदेशी भाषा विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हो चुके थे. अपनी निरंतर सक्रियता के कारण वे नाट्यकर्मियों और लेखकों के बीच सामान रूप से प्रेम और आदर के पात्र बने हुए थे.

      जनवादी लेखक संघ कामरेड जीतेन्द्र रघुवंशी के निधन पर गहरा शोक व्यक्त करता है. उनका जाना साम्प्रदायिक ताक़तों और अभिव्यक्ति की आज़ादी का गला घोंटने वाले संकीर्णतावाद के उभार के इस दौर में एक बड़ी क्षति है.

 मुरली मनोहर प्रसाद सिंह
(महासचिव)
संजीव कुमार
(उप-महासचिव)
 जनवादी लेखक संघ

सुखमय प्रस्थान

आज कवि मित्र राजकिशोर राजन के जन्मदिन पर उनकी एक कविता.. जो मुझे बेहद पसंद है..

अभी कुछ देर पहले 
गली के एक मकान से
श्मशान-घाट के लिए निकला है
एक वृद्ध का शव

कुछ दिन पहले ही
वे पिला रहे थे डांट
सब्जीवाली को, बेडोल तराजू रखने के लिए

कुछ दिन पहले ही
वे पैदल गये थे बाजार
अपनी बड़ी पतोहू के लिए खरीदने
आंवले का अचार
कुछ दिन पहले ही
अपने मकान के गेट को, नये ढंग से
कराया था निर्माण
जो उनके मकान को बना रहा था भव्य

कुछ दिन पहले ही
अपने किराएदार को
समाय पर किराया नहीं देने के बदले 
किया था निकाल बाहर

गली के लोगों की राय थी
अच्छा हुआ हँसते-खेलते, चलते-फिरते
खाते-पीते चले गए
इनदिनों इससे अच्छा
और क्या हो सकता है
सुखमय प्रस्थान !

शहंशाह आलम की कविता ‘अभिनेत्री’



क अभिनेत्री प्रकट होती है
एकदम बम्बइया
एकदम बाजारू
कई-कई मूल्यवृद्धि वाली
इस व्यवस्था को 
इस जनतंत्र को 
नकारती दुत्कारती फटकारती

एक अभिनेत्री घुसती है
हमारी आंखों की नींद के सपने में
बिना किसी खींचातानी के
जैसे कोई चिड़िया घुस आती है
एकदम आतुर
हमारे कमरे में

एक अभिनेत्री तब भी कर रही होती है
अठखेलियाँ दृश्यपटल पर
सौ बार जलती और बुझती है
जब किया जा रहा होता है
नाभिकीय करार दो सरकारों के बीच 
जब हमारे दुश्मन खोद रहे होते है कब्र
जब पिता के लिए ला रहे होते हैं 
हम दवाइयाँ पैसे बचा-बचाकर

एक अभिनेत्री अपना ऐतिहासिक 
नृत्य दिखलाती है तब भी
जब हम मना रहे होते हैं 
अपनी नाराज़ प्रेमिका को

तब भी जब हम मार भगा रहे होते हैं 
पेड़ काटने वालों को
तब भी जब हम इकट्ठा कर रहे होते है
रेशम का कीड़ा
आग पानी और हवा
और हमारे-तुम्हारे प्रेमपत्र ....

एक अभिनेत्री प्रेमालाप कर रही होती है
जब तुम-हम रोटी के लिए लड़ रहे होते हैं
अपनी मुक्ति का सपना देख रहे होते हैं
अथवा तेज़ हथियार ढूँढ रहे होते हैं
अपने अमात्य-महामात्य को 
मार भगाने के लिए !

शुक्रवार

समकालीन कश्मीरी कविता ‘वसंत’ ..


समकालीन कश्मीरी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर गुलाम नबी ‘आतिश’ की कविता किसी भी राजनीतिक, सामाजिक उलझनों और विवादों से अलग दिखती है। इनकी कविताओं में आक्रोश और संघर्ष का एक सादगीपूर्ण इज़हार है साथ ही इनकी विशिष्ट अभिव्यक्ति पाठकों पर गहरी छाप छोड़ती है। प्रस्तुत है इनकी ‘वसंत’ शीषर्क कविता (अनुवाद: क्षमा कौल) मित्रों के लिए ‘जनशब्द’ पर..

वसंत

प्रेम-हीन बसंत
आज शीत
गंघहीन ठंडक
बहुत
कहाँ आएँगे भला प्रवासी पक्षी
वसंत आया नहीं
अब के इधर

जलसे-जुलूस प्रौपेगंडा
ग्रीष्म के सिंह की भी
साँस उसाँस हो रही है
ऋतुओं का दूल्हा खो गया है
चुनावों की गहमागहमी में।
 

मंगलवार

औरत

‘बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा’ में पिछली पूरी सदी के 140 प्रमुख कवियों की प्रतिनिधि काव्य रचनाओं का समावेश है। ओड़िया की सृजनक्षमता की एक बानगी गिरिबाला महांति की कविता ‘औरत ’ में दिखती है, जो नारी मन के आक्रोश और पीड़ा की अभिव्यक्ति है..

औरत..

लड़की का भला दुख कैसा,
जिसके घर जन्मी, बड़ी हुई, राह चली जीती रही
मरेगी किसके घर- उसे भय कैसा ?
उसे लेकर इतनी खोज-बीन कैसी ?
लड़की का भला दुख कैसा!!

औरत जात की
इतनी आकांक्षा-आशा कैसी ?
अमुक की बेटी, फलाँ की स्त्री,
उसकी माँ बनी है, बनी रहे,
अलग नाम खोजने की जरूरत क्या ?

जन्म लिया, यही काफी है।
इतने भाव-अभाव की बात कैसी ?
औरत बनकर हृदय कँपाएगी-
पूजा लेगी, वर देगी, सब देगी।

वर पाने की आशा फिर कैसी ?
साधारण कामना-वासना ?
यह कैसी बात ?
देवी बनी रहे
सदा तितिक्षा में उद्भाषित-
खड्ग-खप्पर लिए असुर निधन में भी
स्थिर उद्भावित रहे चेहरा।

-क्रोध जैसा क्या ?
अभिशाप कैसा ?
ये घर तेरा नहीं रे माणिक
ये घर तेरा नहीं कि
जो चाहोगी पाओगी,
इच्छा की स्पर्धा में उद्भाषित होगी।

तू किसी वन की नहीं
बगिया की है-
बोगनविला या कामिनी कुछ है
जिसकी फुनगी जैसी छेद है
वैसी ही बनी रह,
मन जरज़ी डाल फैलाए
यहाँ चलेगा नहीं रे माणिक !
जैसा कहा जाय खिलना-
लाल खिलना या श्वेत या नारंगी
यह चिन्ता तुझे करने देगा कौन ?
जीने दिया जा रहा
वह क्या यथेष्ट नहीं रे माणिक ?
- फिर तू अपनी खुशी में
देखना सपने, कैसी स्पर्धा।
मामूली औरत!
मसल दें तो मिट जाएगी !!

सोमवार

रमेश नीलकमल की याद में..

हरिशंकर श्रीवास्तव ’शलभ’ के साथ रमेश नीलकमल..


                                              कवि, कथाकार और ’शब्द कारखाना’ पत्रिका के सिद्ध संपादक रमेश नीलकमल के निधन से मर्माहत हूँ..। बिहार में समकालीन लेखन के प्रति उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। उन्होंने कई कवि व कथाकारों को पहचान दी। उनकी पत्रिका ’शब्द कारखाना’ के 27 वें अंक, जो जर्मन साहित्य पर केन्द्रित था का संयोजन करने का अवसर मुझे मिला था। ग्युंटर ग्रास पर मेरे एक आलेख की उन्होंने बेहद सराहना की थी, जब अगले वर्ष ग्रास को साहित्य का नावेल पुरस्कार मिला था..।
 रमेश नीलकमल हिन्दी, अंग्रेजी, मगही व भोजपुरी में अपनी रचनात्मक्ता की छाप छोड़ चुके हैं। उनका जन्म- 21 नवम्बर 1937 को बिहार, पटना, मोकामा के 'रामपुर डुमरा' गाँव में हुआ था। उन्होंने कोलकाता में बी.ए.,  फिर पटना से बी.एल. एवं प्रयाग से साहित्य-विशारद की थी तथा सेवानिवृत्त 'कारखाना लेखा अधिकारी' पद से की। उनकी 10 काव्य कृति, 4 कहानी संग्रह, 5 समीक्षा, 2 रम्य-रचना, 3 शोध-लघुशोध, 1 भोजपुरी-विविधा तथा1 बाल-साहित्य,  लगभग 20 पुस्तकें प्रकाशित हुई तथा 10 से अधिक पुस्तकों का उन्होंने  संपादन भी किया था। उनकी महत्वपूर्ण पुस्तकों में - बोल जमूरे (काव्य-नाटक),  अपने ही खिलाफ, कवियों पर कविता, राग-रंग-मकरंद (हिंदीतर),    कविता का क ख ग,   एक और महाभारत,   नया घासीराम, वैश्यों का उद्भव और विकास, राजकमल चैधरी: सृजन के आयाम, कोसी के आर-पार (संपादन), समय के हस्ताक्षर आदि प्रमुख हैं..। 'शब्द-कारखाना'  के साथ ही 'वैश्यवसुधा' त्रैमासिकी का भी वे संपादन करते थे साथ ही वे प्रगतिशील सृजनशीलता के नये आयाम की तलाश भी  ताउम्र करते रहे...।
    उनकी बहुचर्चित कालजयी कृति ’आग और लाठी’ के लिए उन्हें 1985 में प्रतिष्ठित मैथिली शरण गुप्त राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उनकी साहित्यिक कृतियों पर मगध विश्वविधालय, भागलपुर विवि. एवं गौहाटी विवि. आदि उच्च शिक्षण संस्थाओं में शोध व अध्ययन कार्य हो रहे हैं...।
    उनकी सहजता व आत्मीयता की कई बानगी मेरे हृदय में कायम रहेगी..। मधेपुरा/ सहरसा   स्थित मेरे आवास पर उनका पदार्पण कई बार हुआ था, दिल्ली, हरिद्वार व ऋषिकेश का पर्यटन भी हमने साथ-साथ किया तथा 17 सितं. 2000 को दिल्ली में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन में भी हम कई दिनों तक साथ रहे। जमालपुर/ मुंगेर में भी उनका सानिध्य मिला। लगभग  दस वर्ष पूर्व लाल किला के प्राचीर में पिता जी हरिशंकर श्रीवास्तव ’शलभ’ के साथ ली गई उनकी तस्वीर, उनकी स्मृति को समर्पित है..।
- अरविन्द श्रीवास्तव

शनिवार

पूर्णिया में सतीनाथ भादुड़ी के साहित्य पर विमर्श..




-सौ बांग्ला लेखकों में तीस प्रतिशत बिहार के लेखक हैं..
-‘ढोढाइ चरित्रमानस’ कोसी अंचल के सामाजिक जीवन का आईना है..

    बांग्ला के प्रसिद्ध साहित्यकार सतीनाथ भादुड़ी द्वारा स्थापित पूर्णिया जिला मुख्यालय का ऐतिहासिक पुस्तकालय ‘इंदु भूषण पब्लिक लाईब्रेरी’ में 7 फरवरी को आयोजित साहित्यिक विमर्श में हिन्दी एवं बांग्ला के साहित्यकारों की भागीदारी रही। इस विमर्श में इस पुस्तकालय के सचिव शंभुनाथ गांगुली, मनोज मुखर्जी, तपन बनर्जी, रोमेन चौधरी, आलो राय, विश्वंभर नियोगी, अजय कुमार एवं मधेपुरा से आये कवि अरविन्द श्रीवास्तव मौजूद थे। इस विमर्श का संचालन कथाकार एवं आलोचक अरुण अभिषेक कर रहे थे।
बांग्ला कवि आलो राय ने कहा कि सतीनाथ भादुड़ी ने 1938 में इस लाइब्ररी की स्थापना की थी, उस वक्त से लेकर आजतक की महत्वपूर्ण बांग्ला साहित्य को बतौर धरोहर इस पुस्तकालय में संजोया गया है तथा बांग्ला की समृद्ध साहित्यिक परंपरा को बिहार, विशेषकर पूर्णिया के साहित्यकारों ने विशेष रूप से संवर्द्धित किया है। 
संवाद को आगे बढ़ाते हुए तपन बनर्जी ने गौरवान्वित हो कर कहा कि सौ बांग्ला लेखकों में तीस प्रतिशत बिहार के लेखक हैं। उनमें सतीनाथ भादुड़ी, विभूति भूषण वन्धोपाध्याय, वनफूल, केदारनाथ वन्धोपाध्याय, श्रीमती लिली रे आदि मुख्य हैं । 
मनोज मुखर्जी का मानना था कि यह पूर्णिया शहर पहले कटिहार भूखण्ड से सहरसा कोसी प्रमंडल तक पूरा क्षेत्र पूर्णिया जिलान्तर्गत था। फनीश्वरनाथ रेणु, लक्ष्मीनारायण सुधांशु, जनार्दन झा द्विज, वफा मलिकपुरी, अनुपलाल मंडल व गंगानाथ सिंह जैसे विद्वान राष्ट्रीय फलक पर चर्चित रहे। 
रोमेन चौधरी ने कहा कि सतीनाथ भादुड़ी की चर्चित रचना ‘जागरी’ रही है। उपन्यास जागरी के लिए उन्हे ‘रवीन्द्र पुरस्कार’ मिला था। इनका उपन्यास ‘ढोढाइ चरित्रमानस’ कोसी अंचल के सामाजिक जीवन का आईना है। इसके अतिरिक्त इनके उपन्यास ‘चित्रगुप्तेर फाईल’, ‘अचिन रागिनी’ ‘दिग्भ्रान्त’ आदि चर्चित हैं। 
विश्वंभर नियोगी ने सतीनाथ भादुड़ी की  परिचिता, रथेर तले, कृष्ण कली, पंक तालिका आदि कहानियों की भी चर्चा की। 
कथाकार अरुण अभिषेक ने कहा कि ‘कर दातार संघ जिन्दाबाद’ नामक कहानी में भादुड़ी जी ने हास्य के माध्यम से मनुष्य के मन की विकृति जो झूठ और बेईमानी से उपजती है, उसे उजागर किये हैं जो आज भी वर्तमान में हम महसूस करते हैं।
     मधेपुरा से आये अरविन्द श्रीवास्तव ने अभिभूत होकर हिन्दी व बांग्ला के संयुक्त साहित्यिक पहल को सार्थक माना तथा पूर्णिया के साहित्यक अवदान को नमन किया। 
धन्यवाद ज्ञापन अजय कुमार ने किया।

सोमवार

वर्ष 2012 के लिए ‘केदार सम्मान’ एवं ‘कृष्ण प्रताप कथा सम्मान’ हेतु प्रविष्टियाँ आमंत्रित..


              ‘केदार सम्मान’   

        समकालीन हिन्दी कविता के विशिष्ट सम्मान ‘केदार सम्मान’ वर्ष 2012  के लिए प्रकाशकों, रचनाकारों एवं उनके शुभचिन्तकों से 30 नवम्बर 2012 तक - पिछले चार वर्षो तक प्रकाशित कविता संकलनों की दो प्रतियां आमंत्रित की जाती है । वे रचनाकार इस सम्मान हेतु अपने कविता संकलन भेज सकतें हैं जिनकी कविता की प्रकृति जनकवि केदारनाथ अग्रवाल की परम्परा में प्रकृति एवं मानव मन के जुड़ावों के साथ, आदमी के श्रम एवं संघर्षों में वैज्ञानिक चेतना के हिमायती हो । और जिनका जन्म 15 अगस्त 1947 के बाद हुआ हो। इस विशिष्ट सम्मान से अब तक समकालीन हिन्दी कविता के इन रचनाकारों को सम्मानित किया जा चुका है - नासिर अहमद सिकन्दर, एकांत श्रीवास्तव , कुमार अंबुज, विनोद दास , गगनगिल, हरीष्चन्द्र पाण्डे, अनिल कुमार सिंह , हेमन्त कुकरेती, नीलेष रघुबंशी, आशुतोष दुबे, बद्री नारायण, अनामिका, दिनेश कुमार शुक्ल ,अष्टभुजा शुक्ल, पंकज राग, पवन करण ।
                                                             नरेन्द्र पुण्डरीक
                                                            संयोजकः
                                   केदार सम्मान एवं सचिव केदार शोध पीठ,
                                                                                                                    
                                                                                                                             
   कृष्ण प्रताप कथा सम्मान वर्ष -2012

    समकालीन हिन्दी कहानी के विशिष्ट सम्मान ‘‘कृष्ण प्रताप कथा सम्मान वर्ष 2012’’ के लिए  समकालीन कहानीकारों , प्रकाशकों एवं उनके शुभचिन्तकों से पिछले तीन वर्ष में प्रकाशित  कहानी संग्रहों की दो प्रतियां आमंत्रित की जाती हैं । अब इस विशिष्ट कथा सम्मान से कथाकार बन्दना राग को उनके कहानी संग्रह ‘युटोपिया’ एवं मनीषा कुलश्रेष्ठ को उनके कहानी संग्रह ‘केअर आफ स्वात घाटी’ के लिए सम्मानित किया जा चुका है। प्रविष्टियां 31 दिस0 2012 तब आमंत्रित हैं
                                                               नरेन्द्र पुण्डरीक
                                               संयोजकः कृष्ण प्रताप कथा सम्मान
मोबाइल - 09450169568.          एवं
                                   सचिवः केदार शोध पीठ, न्यास, बांदा                                                                                                                        

बुधवार

शहंशाह आलम की दो ताज़ा कविताएँ..



बरसात

बरसात में सबकुछ बहुतकुछ
धुल रहा था धीरे-धीरे

धुल रहा था जैसे अतीत
धुल रही थी जैसे आत्मा बेचैन
धुल रहा था जैसे
मन का दुष्चक्र

पेड़ पहाड़ बाघ घर जल अनंत
सब धुल रहे थे
बरसात में इस बार

धीरे-धीरे जैसे
धुल रहा था मैल
देह पर का
           *
उसने मुझे साधा था

वह पानी की तरह तरल थी
ठोस थी पत्थर की तरह

वह गूंजती थी झरने जैसी मुझी में

उसने मुझे साधा था
कुछ इस तरह से
कि मैं उच्चारता
उसकी छातियों के समुद्र को
उसकी देह के जल को

उच्चारता था इस पूरे समय को
इस पूरे जीवन को लयवद्ध
उसी को भुजाओं में भींच
              * *

शुक्रवार

धमाके हार जायेंगे.., पटना में साहित्य अकादेमी का बहुभाषी कवि सम्मेलन

साहित्य अकादेमी के विशेष कार्य पदाधिकारी जे. पोन्नुदुरै का वक्तव्य...
         देश विभिन्न भागों से आये बहुभाषाभाषी कवियों की गरिमामय उपस्थित से पटना स्थित ख्रुदा बख़्श  ओरियंटल पब्लिक लाइव्रेरी का प्रशाल जगमगा उठा। हिन्दी, पंजाबी, उर्दू, नेपाली, असमिया, मैथिली और संताली भाषा के प्रतिष्ठित कवियों ने अपनी काव्य की रस धारा से पटना में अद्वितीय समां बांध दिया। कवियों में कई साहित्य अकादेमी सम्मान से सम्मानित कवि थे।
    पटना के खुदा बख़्श ओरियंटल लाइब्रेरी में 24 जून को सम्पन्न इस बहुभाषी कवि सम्मेलन का विधिवत शुभारंभ करते हुए साहित्य अकादेमी के विशेष कार्य पदाधिकारी जे. पोन्नुदुरै व मैथिली भाषा के संयोजक विधानाथ झा विदित ने अपने स्वागत वक्तव्य में बहुभाषी कवि सम्मेलन की सार्थकता को रेखांकित किया। इस औपचारिकता के बाद कविता , शेरो-शायरी का दौर शुरू हुआ। कविता पाठ के प्रथम सत्र में देहरादून से आये कवि-गीतकार डा. बुद्धिनाथ मिश्र, वनिता (पंजाबी), आलम खुर्शीद (उर्दू) सुरेन्द्र थींग (नेपाली) देव प्रसाद तालुकदार (असमिया) यशोदा मुर्मू (संताली) व शांति सुमन (हिन्दी) ने अपनी कविताओं की बहुरंगी छटा बिखेरी, कुछ बानगी - राइफलें खेत जोत रही है/ बुलेट की गंध यत्र-तत्र सतर्कता के साथ फैल रही है/सिगरेट की गंध में भी बारुद की गंध है/ प्यासा मन पानी खोज रहा है.. (सुरेन्द्र थींग)। उर्दू के आलम खुर्शीद ने कहा - जिन्दा रहने के खातिर इन आँखों में कोई न कोई ख्वाब सजाना होता है/ सेहरा से बस्ती में आकर ये भेद खुला, दिल के अंदर भी विराना होता है। देव प्रसाद तालुकदार (असमिया) ने अपनी - साइकिल एवं दायाँ हाथ, बाँया हाथ शीर्षक कविताओ से ताली बटोरा। मैथिली की रानी झा ने प्रेम गीत सुनाया। हिन्दी कवयित्री शांति सुमन ने - तुम मिले तो बोझ है कम बहुत हल्की पीठ की गठरी... से वातावरण को खुशनुमा बनाया। वनिता (पंजाबी) ने ‘मैं शकुंतला नहीं’, पूंजीवाद और भाषा की कलम शीर्षक कविता का पाठ किया। बुद्धिनाथ मिश्र ने गीत में कहा - आदमी गुम जायेगा उसका पता रह जायेगा, और नदी के तीर पर जलता दिया रह जायेगा....। उन्होंने मैथिली कवितायें भी सुनाई। विद्वान डा. इम्तियाज अहमद ने इस सत्र के समापन  पर धन्यवाद ज्ञापन किया।
    सम्मेलन के द्वितीय सत्र में डा. दीपक मनमोहन सिंह (साहित्य अकादेमी के पंजाबी परामर्श मंडल) की अध्यक्षता में कीर्ति नारायण मिश्र (मैथिली), जदुमनि बेसरा (संताली), शमीम तारिक (उर्दू), राजीव बरूआ (असमिया) ने अपनी कविताओं से उपस्थित श्रोताओं का मनोरंजन किया। एक बानगी शमीम तारिक  की - धमाके हार जायेंगे..अब तो दहलीज़ तक आ पहुँचा है चढ़ता पानी... आँख लग जाये जहाँ उसको हवेली कहिए...।
    शायर व गज़लकार चंद्रभान ख़्याल की अध्यक्षता में स्वयंप्रभा (मैथिली), आदित्य कुमार मंडी (संतली) कुलवीर सिंह (पंजाबी), उत्पला बोरा (असमिया), जफर कमाली (उर्दू) और अरविन्द श्रीवास्तव (हिन्दी) ने  काव्य पाठ किया। देखें कुलवीर सिंह की पंक्ति ‘टूटकर रिश्ता हमारा और सुंदर हो गया, तुमको मंजिल मिल गयी मैं मुसाफिर हो गया...। अरविन्द श्रीवास्तव (मधेपुरा) ने अपर्नी  समकालीन हिन्दी कविताओं के जरिए सामाजिक विसंगतियों को रेखांकित किया- तुम करो चिंता / शेयर, सत्ता / ओजोन-अंतरीक्ष की / मुझे करनी है / सबेरे की..। चंद्रभान ख्याल ने दिवंगत शायर कुमार पाशी की स्मृति में लिखे अपने नज़्म को पेश किया।
     इस बहुभाषी कवि सम्मेलन के अंतिम सत्र में वरिष्ठ कवि अरुण कमल (हिन्दी), जसवीर राणा (पंजाबी), उदयचन्द्र झा ‘विनोद’ (मैथिली), शिवलाल किस्कू (संताली) डा. कासीम खुर्शीद (उर्दू) और कौस्तुभ मणि सैकिया (असमिया) ने अपनी-अपनी कविताओं के माध्यम से आज के हालात को श्रोताओं के सामने रखा। कवि अरुण कमल ने अपनी - ‘घोषणा, वित्तमंत्री के साथ नाश्ते की मेज पर, लाहौर, तोडने की आवाज, अमर फल और अपनी केवल धार शीर्षक कविताओं द्वारा कविता की समसामयिक यर्थाथ को उकेरा । डा. कासीम खुर्शीद ने कहा ‘मुझे फूलों से बादल से हवा से चोट लगती है, अजब आलम है इस दिल को वफा से चोट लगती है...। समारोह के सफल समापन पर विद्यानाथ झा ‘विदित’ ने दूरागत कवियों एवं उपस्थित श्रोताओं को धन्यवाद दिया। 
    साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली और चेतना समिति व खुदा बख्श लाइब्रेरी के सहयोग से पटना में आयोजित इस बहुभाषी कवि सम्मेलन में देश के विभिन्न हिस्सों से आये बहुभाषी कवियों की भागीदारी ने  आयोजन को यादगार बना दिया। समारोह में अकादेमी द्वारा पुस्तक प्रदर्शनी भी साहित्य प्रेमियों के आकर्षण का केन्द्र रहा।

मंगलवार

जाबिर हुसेन की कविता : एक दिन बच्चों ने पूछा..




क दिन बच्चों ने पूछा कैसे लिखते हैं पापा समुद्र
फिर पूछा कैसे दिखते हैं पापा समुद्र

इसी तरह कभी पूछा था बच्चों ने
कैसे लिखते हैं पापा नदी कैसी होती है नदी

नदी की कल्पना आसपास थी मेरे
नहीं हुई कोई ख़ास दिक्क़त बच्चों को बताने में
कैसी होती है नदी
पर समुद्र मेरी कल्पना से परे था
उस दिन मैंने बच्चों के सवालों से
अपनी आंखें चुरा ली थीं

कई बरस बाद
जब मेरी उम्र ने थोड़ी फुर्सत पाई
मैंने दर्शन किए समुद्री शहरों के
कई-कई दिन कई-कई रातें
गुज़ारीं समुद्री लहरों के साथ
मीलों गया समुद्र का सीना चीर
देखा कैसे चलती हैं समुद्र में पोतें
कैसे निकालते हैं समुद्र की गहराइयों से
ज्वलनशील पदार्थ
कैसे पकड़ते हैं समुद्री मछलियां बिछाते हैं जाल
कैसे अग़वा कर ली जाती हैं समुद्री नावें
आज़ाद मछुआरे कैसे बना लिए जाते हैं बंदी
टिकाते हैं मछुआरे तूफानी लहरों पर
कैसे अपनी नौकाएं गाते हैं गीत
डोलती नावों पर कैसे बेख़ौफ करते हैं नृत्य
कैसे चुन-चुन लाते हैं
समुद्री थपेड़ों से बनती रेत-आकृतियां
कैसे दूर कहीं
समुद्री टावरों पर
जलते हैं सुरक्षा के दीप
खड़ा होता है बंदूकें दूरबीनें ताने अकेला कोई प्रहरी
कैसे पैदा होती है समुद्री लहरों की मदद से ऐटमी उर्जा
कैसे दूर करते हैं समुद्री जल से उसका खारापन
और पाईप में भर-भर
कैसे बेचते हैं उसे बाज़ारों में

कैसे तट पर तैरती हैं तृष्णाएं
केसे खुलती हैं रंग-बिरंगी बोतलें
कैसे धुएं में पिघलती है तरुणाई
कैसे नशे में डूबती हैं आत्माएं
गुब्बारे कैसे उछलते हैं आसमानों में
कैसे बजती हैं धड़कनें एकदम से तेज़ कर देने वाली धुनें
कैसे सुलगती है आग कैसे बुझती है राख

रेतीली ज़मीन पर समुद्री हिलकोरों के बीच
कैसे थिरकती हैं परियां
कैसे फैलती-सिमटती हैं उनकी पोशाकें
ढंक जाते हैं कैसे
जिस्मों से उनके जिस्म

कैसे डूबता-उबरता है
लंबी दूरी तय करके आने वाला कोई थका जहाज़
कैसे धंस जाते हैं कभी
रेत में उसके आहनी डैने

कैसे विराजती हैं समुद्री गुफाओं में आस्थाएं
जिंदा रहती हैं किंवदंतियां
कैसे सिमट आती हैं एक पल में
हज़ारों साल की दूरियां
मैंने देखा कैसे पिघल जाती हैं चट्टानें
उभर आते हैं द्वीप

कैसे तय होते हैं समुद्री तट पर बने
सितारा होटलों सी-रिसार्टों में सौदे
कैसे होती है सिक्कों की लेन-देन अदलाबदली

सब कुछ देख कर लौट आया हूं
इस शाम मैं अपने गांव
मेरी आंखों में बसी है
अनुभव की एक विशाल दुनिया
अपने बच्चों को बताने उन्हें समझाने
बरसों पूर्व पूछे गए उनके सवालों के जवाब

इस शाम मैं लौट आया हूं अपने गांव
मैंने आवाज़ दी है अपने बच्चों को
बारी-बारी नाम उपनाम से पुकारा है उन्हें

कुहासे और धुंध में ढंकी हैं
मेरे गांव की दीवारें
लौट आई है मेरी आवाज़
घर के आगे खड़े पुराने पेड़ की शाखें
सहलाती हैं मेरे कंधे कहती हैं शायद

बच्चे तेरे अब नहीं रहे बच्चे
हो गए हैं बड़े
सपनों में उनके नहीं रह गया है समुद्र
जान गए हैं वो बड़े होकर
कैसे लिखते हैं समुद्र कैसे दिखते हैं समुद्र

जाबिर हुसेन: साहित्य अकादमी द्वारा सम्मानित एवं साहित्यिक पत्रिका ’दोआबा’ के संपादक हैं।
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